(विकास बहुगुणा). पहलगाम की आतंकी घटना के बाद सब अपनी-अपनी बात कह रहे हैं. लेकिन ज्यादातर मामलों में इस बात का दायरा अपने-अपने खेमे से आगे नहीं जा पा रहा. यह स्वाभाविक ही है कि क्योंकि इन दिनों मामले को खेमे से आगे बढ़कर देखने पर दोनों तरफ से पत्थर खाने पड़ते हैं.
पहलगाम आतंकी हमले से जुड़े कई सच हैं. एक सच तो यही है कि आतंकियों ने यह कत्लेआम धर्म के आधार पर किया. यह कोई चौंकाने वाला सच नहीं है. कोई भी आतंकी संगठन इसी तरह की शिनाख्त पर ऐसी कार्रवाईयों को अंजाम देता है.
लेकिन एक खेमे को यह सामान्य सा सच भी असुविधाजनक लगता है. उसे लगता है कि इस्लामिक आतंकी कह देने से जाने क्या आफत टूट पड़ेगी, जबकि तमिल से लेकर सिख और आयरिश रिपब्लिकन आर्मी तक तमाम उदाहरण हैं जिनमें आतंकवाद का उल्लेख उसकी धार्मिक-वैचारिक पहचान के साथ होता रहा है. लेकिन ‘डिनायल’ या फिर ‘डायल्यूशन’ की रेत में गड़ा अपना सिर उठाने को यह खेमा तैयार नहीं दिखता. उसे यह अहसास ही नहीं कि इससे उनका ही नुकसान हुआ जा रहा है जिनकी तरफ होने का वह दावा करता है।
दूसरा सच यह है कि इसी पहलगाम में अगर धर्म पूछकर मारने वाले लोग थे तो दूसरी तरफ वे स्थानीय लोग भी थे जिन्होंने धर्म पूछे बिना कई लोगों की जान बचाई. जो घायलों को खच्चरों और कारों में लादकर अस्पताल ले गए. जो नींद और भूख-प्यास भूलकर उनके इलाज में लगे रहे.
लेकिन यह सच दूसरे खेमे के लिए असुविधाजनक है क्योंकि यह उसकी प्राणवायु के प्रतिकूल है. उसे रंग-बिरंगे स्वेटर का एक खास रंग वाला धागा पसंद नहीं है जिसे उधेड़कर वह खींचे जा रहा है, बिना यह अहसास किए कि इससे देर-सवेर स्वेटर का ही काम-तमाम हो जाएगा.
तीसरा सच तंत्र की विफलता का है. आज जो सत्ता में हैं वे विपक्ष में रहते हुए ऐसी घटनाओं को लेकर तत्कालीन सरकार से कड़े सवाल करते रहे हैं. लेकिन आज जब सरकार उनकी है तो उन्हें सवालों से परहेज है. वे उपलब्धियों का श्रेय बढ़-चढ़कर ले सकते हैं लेकिन असफलताओं की जिम्मेदारी नहीं.
चौथा सच यह है कि जिसका कोई अपना चला गया, उसके अलावा ज्यादातर लोगों के लिए इस त्रासदी का अर्थ एक-दो दिन संवेदना और रोष जताने से ज्यादा कुछ नहीं. दो-चार दिन बाद इसकी जगह पर कोई बहस होगी. दुनिया यूं ही चलती रहेगी.
इसलिए कि दुनिया का कारोबार इतना सीधा नहीं है जितना हमारा सोशल मीडिया पर लिखना है. उदाहरण के लिए अभी-अभी हमारे प्रधानमंत्री सऊदी अरब के दौरे पर थे. यह वही देश है जहां से आतंकवाद की विषबेल को खासा खाद-पानी मिलता है. यहीं से इस्लाम के उस वहाबी पंथ के प्रचार-प्रसार के लिए हर साल अकूत धनराशि जाती है जिसका एक नतीजा पहलगाम जैसी घटनाएं भी होती हैं. और यह काम उसी तेल से मिलने वाली रकम के बूते होता है जिसे भारत सरकार भी बड़ी मात्रा में खरीदती है.
पर दूसरी तरफ यह भी सच है कि यही सऊदी अरब लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी भी चलाता है. ये भारतीय हर साल करीब 65 हजार करोड़ रुपये की रकम वापस भेजते हैं और देश की तरक्की में बड़ा योगदान करते हैं. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री के दौरे पर इसी सऊदी अरब ने भारत में बुनियादी ढांचे से लेकर स्वास्थ्य तक कई क्षेत्रों मे करीब साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये के निवेश का ऐलान किया है.
यानी एक ही चीज के कई पहलू हो सकते हैं. ज्यादातर लोग अपने हित के हिसाब से अपना-अपना पहलू कसकर पकड़ लेते हैं. सरकार की चूक बताने वाले इस्लामी आतंकवाद की बात पर असहज हो जाते हैं. इस्लामी आतंकवाद की बात मानने वाले सरकार की चूक मानने को तैयार नहीं होते. ऐसा होना तो नहीं चाहिए, लेकिन दुनिया में ऐसा होता है.
एक तरह से देखें तो सब कुछ अपने समय से बंधा है जिस पर कई बार किसी का कोई बस नहीं दिखता. जैसे सोने का हिरण होना असंभव है. लेकिन सीता ने वह देखा और राम उसे लेने गए. बाकी कथा तो सब जानते ही हैं.
होई है सोई जो राम रचि राखा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, और देश के तमाम बड़े मीडिया संस्थानों में अपनी सेवाएं दे चुके)
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